विषयों का विशवत त्याग करो

विषयों का विशवत त्याग करो

एक रात्रि महाराज जनक ने स्वप्न में देखा कि वे बहुत हि निर्धन थे तथा उन्होंने भूख से व्याकुल इधर-उधर से मांग कर  थोडे चावल इकट्ठे किये | जंगल से लकडियाँ इकट्ठी करके उन्हें जलाया और मिटटी के टूटे-फूटे बर्तन में पकाने लगे |

लकड़ी गिला होने के वजह से पकने में थोडा समय लग रहा था | इधर महाराज का भूख से बुरा हाल था, अत: उन्होंने अधपके चावलों को ठंढा होने के लिए पत्ते पर फैला दिया | उन्होंने भोजन का पहला निवाला उठाया ही था की कही से भागता हुआ एक सांड आया और सारा भोजन बर्बाद कर के चला गया |

महारज अपनी इस दयनीय स्थिति को देख कर फूट-फूट कर रोने लगे और मुर्च्छित होकर जमीन पर गिर पड़े | जब नींद खुली तो देखा की वो अपने महल में सुकोमल शय्या पर लेटे हुए हैं| जनक जी का शरीर और मन की अत्यंत व्याकुल स्थिति थी | वे रात भर सो न सके | एक ही प्रश्न उन्हें बार बार बेचैन कर रहा था कि स्वप्न सत्य था या वर्तमान सत्य है ? अगले ही दिन दरबार में सभी विद्वानों से पूछा गया पर सबके अपने-अपने उत्तर थे | महाराज को कोई संतुष्ट नहीं कर पाया |

कुछ दिनों एक दिन बाद महाराज जनक के सभा में एक बारह वर्ष के बालक ने प्रवेश किया जो, ज आठ स्थानों से टेढ़े थे | उन्हें इस अवस्था में देख कर सभासद हँस पड़े | बालक ने चारो ओर दृष्टि डालकर विनम्र्ता से महाराज जनक के ओर मुडकर कहा, `राजन ! मैंने तो सुना था कि आपकी सभा में विद्वानों-पंडितों को ही स्थान प्राप्त है, लेकिन लगता है यह सभा तो चर्मकारों की सभा है |मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि चर्मकारों की दृष्टि चर्म पर ही रहती है, उससे आगे की बात वह सोच भी नहीं सकता | इसी तरह सिर्फ बाहरी शारीर को देखने वाले सत-चित-आनंदस्वरूप आत्मा को कहाँ देख पायेंगे ? राजन ! मैं आपके प्रश्न का उत्तर देने आया था, आपके मन में उठ रहे जिज्ञासा  का समाधान करने आया था, किन्तु लगता है आपलोगों के लिए बुद्धि-विलास भी एक व्यशन है |

महाराज जनक समझ गए की यह बालक तत्वनिष्ठ है | उन्होंने कहा- `क्या आप मेरी शंकाओ का निराकरण कर सकते है ?’ अष्टावक्र बोले – `अवस्य ! मैं आपको सच्चिदानंदस्वरुप आत्मा का, आपके स्वरुप का साक्षात्कार करा सकता हूँ |’ जनक अष्टावक्र के चरणों में दंडवत प्रणाम करके जिज्ञासा भरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगे और बोले-` मुझे क्या करना होगा ? ‘ अष्टावक्र बोले – `आप क्या कर सकते हैं ?’ जनक बोले – ` राज्य, वैभव, परिवार यहाँ तक कि अपना शारीर भी अर्थात् सर्वस्व न्योछावर कर सकता हूँ |’ अष्टावक्र बोले – ` नहीं !  इन सबको त्यागने की आवश्यकता नहीं है |यदि छोड़ना है तो विषयों से राग का त्याग करो | जिसने संसार के विषयों से आसक्ति त्याग दी है, वाही नित्य मुक्त है |’

महाराज जनक ने अष्टावक्र से पहला प्रश्न किया – हे प्रभो ! ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? मुक्ति कैसे प्राप्त होती है ?  वैराग्य को कैसे प्राप्त होउंगा ? यह मुझसे कहें –      # अष्टावक्र गीता १/१

  कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति | वैराग्यम च कथं प्राप्त मेतद्ब्रूही ममप्रभो ||

अष्टावक्र बोले – ` हे तात ! यदि तुम्हें सचमुच मुक्ति की इच्छा है तो सर्वप्रथम विषयों को विष के       समान त्याग दो, और क्षमा, दया, सरलता तथा सत्य का अमृत के समान सेवन करो |’                       # अष्टावक्रगीता १/२

मुक्तिमिच्छ्सी चेतात विषयान विषवत्यज | क्षमार्जवद्यातोष सत्यं पीयूषवद भज ||

महर्षि ने राजा जनक को समझाया की वासनाएं ही संसार है, ऐसा निश्चय  कर के उन सभी वासनाओं का त्याग करो | वासनाओं के त्याग से संसार का त्याग होगा |जहाँ-जहाँ तृष्णा है, वहाँ-वहाँ संसार को जानो | यह यथार्थ है| इसलिए परिपक्व, दृढ वैराग्य का आश्रय लेकर सभी प्रकार की, सभी विषयों की तृष्णा का परित्याग करके सुखी होओ|

राधे राधे ||